सोमवार, मई 31, 2021

सिर्फ सोशलमीडिया पर ही नहीं जम़ीन पर भी पेड़ लगाएं इस पर्यावरण दिवस पर

तस्वीर गूगल से
बात 𝟮𝟬𝟭𝟵 की है, जब मैनें शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को तोहफ़े में पौधे दिये थे, मुझे पता था, कि हर कोई उसकी कीमत नहीं समझेगा ! इस लिए पौधे के साथ कुछ चीजे उपहार स्वरूप भेंट की थी! सभी शिक्षकों ने खुशी - खुशी मेरे तोहफ़े को स्वीकार कर लिया और मेरे भौतिक विज्ञान के सर बोले इससे बेहतर उपहार कुछ और हो ही नही सकता ! तारीफ़ का पुल ही बांध दिया था उन्होंने ! मैं बहुत खुश हुई, क्योंकि मुझे पता बहुत लोग मेरा मज़ाक बनाएंगे पर सर की तारीफ़ के बाद सब के मुहं बंद थे! जब मैंने ये तोहफ़े दिये थे तब मैं वहाँ की पढ़ाई पूरी कर चुकी थी इसलिए बाद में मुझे मेरी बहन से पता चला कि जो सर मेरी तारीफ़ के पुल बांध रहें थे ,वो पौधें को अपने घर ले जाने में शर्म महसूस कर रहे थे, इसलिए पौधें को स्कूल में ही छोड़ दिया! ये सुन कर मुझे दु:ख तो बहुत हुआ और उससे भी ज्यादा सर पर गुस्सा आया!  सर को लगा होगा कि बड़ी बड़ी बातें करना भी तो प्रकृति से प्यार है!पर सिर्फ बड़ी बड़ी बात करने और अच्छे लेख ,कविता लिखने या सोशलमीडिया पर अच्छी-अच्छी पर्यावरण दिवस की पोस्ट डालने से पर्यावरण स्वच्छ नहीं होने वाला ये बात हम सब को समझनी चाहिए!जितनी अच्छी पोस्ट और बातें हो कम से कम उतना ही अच्छे जमीन पर काम होना चाहिए हमारा ! तभी पर्यावरण शुद्ध और स्वच्छ होगा! आये दिन लोग स्टेट्स डालते रहते हैं कि सांसें हो रहीं कम,आओ पेड़ लगाएं हम, सोशलमीडिया पर नहीं जमीन पर पेड़ लगाना जरूरी है सिर्फ सोशलमीडिया पर लगाने कुछ नहीं होने वाला! प्रकृति हमारी सबसे बड़ी और कीमती धरोहर है,जिसे समहाल कर रखना हमारी जिम्मेदारी है,जिस तरह से हमारे पूर्वजों ने हमारी प्रकृति को स्वच्छ और सुंदर बना कर हमें एक बहुत ही कीमती धरोहर के रूप में दिया वैसे ही हमारी भी जिम्मेदारी है ,कि हम आने वाली पीढ़ी को एक स्वच्छ और सुंदर वातावरण भेंट स्वरुप दें। जिससे उनका जीवन सुखदायक  आरामदायक बन सके।यदि हम ऐसा नहीं कर पाते है, तो हमें नई पीढ़ी को भी जन्म नहीं देना चाहिए।जब उनके पास सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा और पीने के लिए स्वच्छ पानी,खाने के लिए स्वच्छ भोजन नही रहेगा तो जीवन यापन कैसे करेगें?कितने दिन तक वो ऑक्सीजन सिलेंडर और फिल्टर पानी से जी सकेगे?चलो मान लेेेते हैं कि मानव जाति स्वच्छ पानी , स्वच्छ हवा और स्वच्छ भोजन के लिए कोई यंत्र बना लेगा जिससे सब रखच्छ हो जाएगा ,लेकिन पशु , पक्षियों और अन्य जीवों का क्या?क्या बाकी जीव,जन्तु और वनस्पति के बिना मनुष्य का जीवन संभव है?सच तो ये है कि बिना प्रकृति के जीवन की कल्पना करना मुर्खता है।बिना प्रकृति के जीवन असम्भव है।यह ऐसी समस्या है जिससे सिर्फ मानव जाति को ही नहीं बल्की समस्त प्राणी के लिए खतरा है। ये बहुत ही चिन्ता का विषय।हमारी सरकार ने प्रकृति को बचाने के लिए कुछ योजना चला रखी है ,जो काफी नहीं है।कठोर कदम उठाने की जरूरत है।जैसा कि जुलाई महीनें को पौधारोपण महीनें के रूप मे मनाया जाता और लाखों की संंख्या में पौधें लगाएं जाते हैं, पर अगले साल उनकी संख्या बहुत कम ही रहती है।क्योंकि ग्राम प्रधान , सरकारी अधिकारी और अन्य लोग सरकार के दबाव में पौधा रोपण तो कर  देते हैं पर दुबारा उसकी खबर तक नहीं लेते! महाशय को इतनी फुर्सत कहाँ! कुछ तो और भी महान प्राणी हैं जो पौधारोपण करवाते ही नहीं पर सरकारी कागज़ात पर वृक्षारोपण हो जाता है ! इस लिए सिर्फ बड़े बड़े अभियान चलाना काफ़ी नहीं है !उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है ,कि अभियान छोटा ही क्यों ना हो पर उसकी पूरी निगरानी होनी चाहिए!  और सरकार को चाहिए कि वृक्षारोपण अभियान को सफल बनाने के लिए  हर ग्राम पंचायत, हर नगरपालिका मोहल्ले में ऐसे लोगो का समूह तैयार करें , जो पौधे की देखदख करें , जो पैसे के लिए नहीं , सिर्फ पर्यावरण के लिए काम करे जो प्रकृति प्रेमी हो और तनख्वाह के तौर पर एक साल पूरे हो जाने के बाद पुरस्कार देना चाहिए वो भी तब ,जब 60% से अधिक पौधें को बचाने में सफल रहतें हैं तो ,ऐसे ही प्रतिशत के हिसाब से पुरस्कारों की कीमत अलग - अलग होनी चाहिए!अधिक प्रतिशत वाले को अधिक कीमती पुरस्कार देना चाहिए! मुझे लगता है इसमें सिर्फ वही लोग भाग लेगें जो सच में प्रकृति प्रेमी हैं! क्योंकि इसमें तनख्वाह नहीं मिलेगा! प्रकृति को बचाना हम सबकी जिम्मेदारी है सिर्फ सरकार की नहीं ! 

शुक्रवार, मई 28, 2021

अब इस अनोमल जिंदगी को यूँ ही नहीं गवाना

तस्वीर गूगल से


                     क्या कसूर है हमारा ? 
             क्यों कैद भरी जिंदगी जीने पर 
               मजबू़र कर रहा ये जमाना ? 
                   बता दे हमे ऐ जमाना ? 
         क्या लड़कियाँ नहीं जीत सकती जंग ?
                   भूल गए क्या वो अतीत ?
                झाँसी की मर्दानी की जीत ! 
                      कहाँ की है ये रीत ?
             कि लड़कियों को रखो घरों में कैद, 
                       किसने बनाई ये रीत ? 
                यदि तुम लोगों की यही है नीत, 
                तो अब तुम्हारी हार है नजदीक |
            अब कान खोल कर सुन ले ऐ जमाना |
                       इन चार दिवारियों को, 
                     तोड़ने का हमने है ठाना |
           अब नहीं रोक सकता हमे ऐ जमाना |
            अभी तक हमने तुम्हारा कहना माना , 
               तुम्हारें हर जुर्म को सहना चाहा , 
                पर अब इस अनोमल जिंदगी को
                         यूँ ही नहीं गवाना | 
               किसी भी लड़की की ख्वाहिशों को 
                    नहीं दफना सकता ऐ जमाना!
                     सदियों से दबी है जो आवाज़ , 
             उसे ज्वालामुखी के रुप मे है बाहर लाना |
                  अब इस जमाने को धूल है चटाना |
                  कलम को है अपनी ताकत बनाना |
                             जिंदगी जीने का  

                   असली मकसद अब है जाना |


मंगलवार, मई 25, 2021

दास्ताँ-ए-गाँव

 मैं आज आप लोगो को अपने गाँव की कुछ रूढ़िवादी विचारधाराओं से रूबरू करवाती हूँ  ! हमारे गाँव में आज भी कुछ ऐसे बुद्धिजीवी लोग है जिनका मानना है कि महिलाएँ ज्यादा पढ़- लिख लेती हैं तो उनका दिमाग खराब हो जाता है वे हमारे यहाँ की परंपरा , रीत -रिवाजों , और संस्कारों को भूल जाती है । अपने पैर पर खड़े होते ही अपने से बडो़ की इज्ज़त करना भूल जाती है दरअसल इन बुद्धिजीवियों की समस्या ये है, इनको लगता है, कि जो ये कहते है और जो करते है सिर्फ वही सही है । यदि कोई औरत इनके विचारों पर अपने विचार रखती है तो इन को उसमें अपना अपमान नज़र आता है । इसलिए इन लोगो को स्याही वाले हाथ की उम्र में मेहंदी वाले हाथ भाते है कानून ने भले ही महिलाओं को हर क्षेत्र में जाने अधिकार दे रखा है पर  हमारे यहाँ घर वाले और  गाँव वाले ने सिर्फ मेडिकल, टीचिंग, पुलिस ,बैकिंग के ही क्षेत्रों में जाने का अधिकार दिया है! मैं आप लोगो को आज अपने गाँव की चाची जी के बारे में बताती हूँ जिनकी उम्र लगभग 40 के आस - पास है  जो पहले गाँव में दिहाड़ी मजदूरी करती थी पर दो, तीन साल से एक सरकारी अस्पताल में काम करती है बस इसी बात से गाँव के लोगों के निशान पर रहती है मौका पाते ही कुछ लोग उनके  चरित्र पर उंगली उठाने से नहीं चूकते  हैं । और कहते है , "यैं रात रात भर अस्पताल मा रहत हीं इनके घरे खाना खाय वाला नाय है, पता नाय कतने जन से मुंह काला करावत हीं, ई मिहारू पूरे गाँव कैय नाक कटाय कैय तब दम ली! इन लोगों को गाँव की चिंता तब नही सताती जब एक औरत रात के दो बजे ही खेतों मे मर्दों के बीच काम करती है और तब भी जब तेज़ दोपहरी में काम करते करते पसीने में भीगने के कारण सारे कपडे़ बदन से चिपक जाते हैं जिससे खेत मे काम कर रहे लोगो के फूहड़ मजाक का सामना करना पड़ता है जब बोझा उठाते वक्त पल्लू को गिरने के कारण गंदी नजरों का शिकार होती है ! तब इन बुद्धिजीवियों को गााँव के इज्जत के साथ खिलवाड़ होता हुआ नज़र नहीं आता और अनहोनी की बू नहीं आती ! लेकिन जब  एक औरत 7-8 किमी की दूरी पर एक अस्पताल मे काम करने जाने लगी तो ये बात गले नहीं उतर रही है और  ये समाज उनके गलत हो जाने के डर से पतला होता जा रहा है  ! कुछ महान लोगो ने तो उनसे सारे रिश्ते तोड़ लिए उनके यहाँ का पानी भी नहीं पीते हैं । क्योंकि वो रात के नौ - दस बजे काम से वापस आतीं हैं जो इनकी नजर मे गलत है हमारे  यहाँ  किसी की बेटी भाग जाती है तो उसकी सजा मां - बाप को मिलती है सजा के तौर पर उन्हें समाज से अलग कर दिया जाता है उनके यहाँ  पानी तक नहीं पीते है . क्योंकि लोगों को लगता है कि यदि कोई उसके घर खाना खाता है या पानी पीता है सारा पाप उसके सर पर आ जाता है लेकिन यदि कोई पुरुष एक पत्नी के रहते हुए दूूसरी औरत ले कर आ जाए जो उनसे नीची जाति की ना हो ( दरअसल हमारे यहाँ आज भी ऊँच नीच का भेद भाव कायम है) तो बिना कोई सवाल किए सारे लोग स्वीकार कर लेते है । जब यही काम कोई महिला करती है तो उसे समाज से अलग कर दिया जाता है मुझे समझ नहीं आता जो काम महिलाओं के लिए गलत है वो पुरुषों के लिए सही  कैसे हो जाता है ? क्या काम का भी जेंडर होता है ? जो चीज गलत है मतलब गलत है वो किसी एक के लिए सही कैसे हो सकती है ?ये तो वही बात हुई तुम करो तो रासलीला और हम करे तो कैरेक्टर ढीला!  जो काम गलत है वो हर किसी कर लिए गलत होता है किसी एक के लिए सही नहीं हो सकता!  क्योंकि सत्यनारायण की कथा कहने वाले पंडित जी यदि मंत्र की जगह अगर गाली देते हैं तो वो मंत्र नहीं हो जाती !गाली ही रहती । या मस्जिद मे कुरान पढ़ने वाले मौलवी नवाज़ की जगह अशब्द का इस्तेमाल करे तो वो शब्द पाक नहीं हो जाता वो अशब्द  ही रहता है ठीक उसी तरह गलत काम गलत ही रहता है फिर करने वाला चाहे कोई भी हो । हमारे यहाँ आज भी महिलाएं साड़ी के सिवा कुछ और नहीं पहन सकती । क्योंकि ऐसा करने पर हास्य , तंज भरी निगाहों  और व्यंग्य के चुभते बाड़ों का सामना करना पड़ता है लेकिन पुरुषों के साथ ऐसा  कुछ भी नहीं होता , वे तो बहुत पहले ही ' आधुनिक हो चुकें है बड़े - बूढ़े भी पैंट -शर्ट और वरमूडा पहनते है लेकिन महिलाएँ अगर सलवार -कुर्ता भी पहन ले तो इन्हे रास नहीं आता  है लेकिन साड़ी में आधा बदन भी दिखे तो भी स्वीकार है । यहाँ महिलाओं के लिए बदलाव कछुआ की तरह रेेंगते हुुए आता है पर पुरुषों के लिए चीते की रफ्तार से! यहाँ यदि 14 साल का लड़का बुलेट जैसी  वजनदार बाइक पर फर्राटे भरता तो समाज ,कानून किसी के भी कान पर जूं तक नहीं रेंगती लेकिन जब एक 40 साल की महिला खुद की कमाई से गाड़ी खरीद कर ड्राइविंग लाइसेंस साथ लेकर गाड़ी चलाए तो ये बात इनके गले नहीं उतरती उसके बिगड़ने की चिंता में समाज अवसाग्रस्त होता जाता है! जिसके चलते दिन प्रति दिन पतला होता जाता है! 

कुछ पंक्तियाँ हमारे समाज के महान लोगो के लिए-

इन नाजुक हाथों से 

जिस दिन कलम की तेज धार निकलेगी, 

जिस दिन रिश्तों का लिहाज़ किये बिना, 

खुल कर रूढ़िवादी विचारधारा पर प्रहार करेगी, 

शराफ़त की नकाब ओढ़ कर बैठे हैं, 

जितने शरीफ़जादे ,

उनके चेहरे बेनकाब करेगी! 


शनिवार, मई 22, 2021

ई- गोल्ड

तस्वीर गूगल से
हाल ही में  भारतीय सुरक्षा विनिमय बोर्ड के प्रमुख अजय त्यागी जी ने एक प्रस्ताव पेश किया है! जिसमें उन्होंने कहा कि अगर हम पूरे भारत में सोने के व्यापार को ई- गोल्ड के रूप करें  ( ई-  गोल्ड रीसिप्ट स्कीम) यानी कि  गोल्ड की जगह ई- गोल्ड के उपर कार्य करेंगे तो ज्यादा बेहतर होगा! जिसमें आप सोने को इलेक्ट्रॉनिक रूप में परिवर्तित सकते हैं! ये सुन कर अक्सर लोगों के मन में एक सवाल उठाता है कि सोने को इलेक्ट्रॉनिक रूप  में कैसे परिवर्तित हो सकता है? 

सोने को इलेक्ट्रॉनिक सोने में कैसे परिवर्तित करते है? 

तो इसके लिए हमें बैंक के पास जाना होगा और अपना सोना बैंक को देकर उसके बदले एक रसीद ले सकते हैं जिसकी कीमत सोने की वजन पर निर्भर होगी और वर्तमान के सोने के भाव जितनी होगी! ऐसा करने से ये फयदा होता है कि हम जितने भाव में सोने को सुनार की दुकान से खरीदें थे उतने भाव में ही बैंक को दे सकते हैं और वही जब हम दुकानों में बेचते हैं तो  सुनार कटौती कर लेता है लेकिन इसमें ऐसा कुछ नहीं है!  और इस रसीद को हम किसी को भी कभी भी सोने के भाव में बिना किसी  काटौती  के  बेच सकते हैं (जितना भाव बैंक में सोने को देते वक्त था) जिसको  बेचेगे वो व्यक्ति किसी दूसरी  बैंक से भी सोने को निकाल सकता है! और अगर आप बेचते नहीं हो तो आप जब चाहे अपने सोने को वापस ले सकते हैं! इससे फायदे ये  होगें कि आप सोने को बैंक के लॉकर में जमा कर के पैैसे देने की जगह आप बैंक को दे कर उससे आप एक रसीद ले सकते जिससे आपका सोना भी सुरक्षित रहेगा और आपका पैैैैसा भी आपके पास रहेेगा! जिस तरह हम बैकों में FD, RD करते हैं ये वैैैैसा ही है! 

ये सोब्रिन गोल्ड बॉण्ड स्कीम से अलग है क्योंकि इसमें सोने को ,सोन के रूप आप दुबारा वापस ले सकते हैं पर सोब्रिन गोल्ड बॉण्ड स्कीम में ऐसा नहीं कर सकते! पर इसमें उन लोगों का फायदा नही होने वाला जिन्होंने ने काले धन को पीला धन बना रखा है 😃😃😅😅 

 अगर इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाता है तो अच्छा रहेगा! बाकी हर सिक्के के दो पहलू होते हैं पर ये बात ज्यादा मायने रखती है कि कौन सा पहलू भारी खूबियों वाला या कमियों वाला! और इसमें खूबियों वाला पड़ला भारी नज़र आ रहा है फ्रॉड होने के भी नहीं हो सकता क्योंकि ये भारतीय सुरक्षा विनिमय बोर्ड की निगरानी में किया जाएगा और अगर हो भी जाता है तो उसकी पूरी जाच भारतीय सुरक्षा विनिमय बोर्ड द्वारा किया जाएगा जिससे पैसे डूबने का खतरा बहुत ही कम है! 



गुरुवार, मई 20, 2021

कम्पल्सरी लाइसेंस से जल्द ही आसानी से मिलेगी वैक्सीन

 

18 मई को स्वदेशी जागरण मंच पर नितिन गडकरी ने कहा कि भारत सरकार को  वैक्सीन बनाने का अधिकार एक ही कम्पनी को ना दे कर कम से कम 10 अन्य कम्पनियों में दे देना चाहिए जिससे  अधिक दवा का निर्माण हो सके और आसानी से दवा पर्ति की जा सके! इस बयान के आते ही कई सवाल उठाने लगे! उनमें से कुछ के सवाल थे कि ये तो कम्पनी के साथ गलत होगा! 

अब सवाल उठता है कि क्या सरकार किसी कम्पनी पर दबाव बना सकती है कि वह अपने द्वारा खुद से बनाए गए फॉर्मूला किसी अन्य के साथ साझा करे? 

पेटेंट लॉ 1970 के तहत  यदि कोई कम्पनी किसी नए प्रोडक्ट  की खोज खुद की है  तो आपको 20 साल के लिए पेटेंट दिया जाएगा! इस लॉ के तहत ऐसा कोई भी कार्य भारत सरकार आपको करने की इजाज़त देती है जिसके तहत आप अपने प्रोडक्ट और प्रोपर्टी को सिर्फ आप ही बेच सकते हैं! लेकिन पेटेंट  ऐक्ट 2005 के तहत यदि आप किसी पूराने प्रोडक्ट के फॉर्मूले में कुछ बदलाव ला कर फिर से 20 साल  के लिए पेटेंट चाहते हैं तो आपको पेटेंट नहीं दिया जाएगा! 

लेकिन कम्पल्सरी लाइसेंस  जो की ( 𝗧𝗥𝗜𝗣𝗥 𝗧𝗿𝗮𝗱𝗲 𝗥𝗲𝗹𝗮𝘁𝗲𝗱 𝗜𝗻𝘁𝗲𝗹𝗹𝗲𝗰𝘁𝘂𝗮𝗹 𝗣𝗿𝗼𝗽𝗲𝗿𝘁𝘆 𝗥𝗶𝗴𝗵𝘁𝘀) द्वारा लाया गया था के तहत यदि कोई कम्पनी किसी ऐसे प्रोडक्ट की सप्लाई पूरी नहीं कर पा रही जिस पर उसे पेटेंट मिला है और मॉर्केट में उस प्रोडक्ट की बहुत अधिक माँग है तो ऐसे में सरकार उस कम्पनी पर एक्शन लेते हुए उस प्रोडक्ट को बनाने का फॉर्मूला अन्य कम्पनियों को दे सकती बशर्ते कि जिन्हें भी फॉर्मूला दिया जाएगा उन्हें अपनी कमाई का 10% उस कम्पनी को देना पड़ेगा जिसका प्रोडक्ट है! इस लिए भारत सरकार भारत बायोटेक और सीरम इंस्टीट्यूट के वैक्सीन का फॉर्मूला अन्य कम्पनियों को देगी जिससे दवा पूर्ति आसानी से हो पाएगी ! इस लिए अब जल्द ही हर एक को आसानी से वैक्सीन लग जाएगी! भारत सरकार का ये एक अच्छा कदम होगा! जिसका हमे विरोध नहीं करना चाहिए क्योंकि कम्पनी के फायदे से ज्यादा लोगों की जान बचाना जरूरी है🙏🙏🙏


मंगलवार, मई 18, 2021

जब पानी सर से बह रहा, फिर कैसे मैं मौन रहूँ?

तस्वीर गूगल से

तुम कहते हो मैं मौन रहूँ, 
जब पानी सर से बह रहा, 
तो कैसे मैं चुप- चाप सहू? 
क्या डूबने का इंतज़ार करूँ? 
दम घुट रहा है अब मेरा, 
और तुम कहते हो थोड़ा धैर्य धरूं! 
क्या आखिरी सांस का इंतज़ार करूँ? 
जब पानी सर .................... 
व्यंग्यों के चुभते बाणों को, 
कैसे मैं दिन रात  सहूँ? 
जो घायल करते मेरे हृदय को, 
उन पर कैसे ना पलटवार करूँ? 
हद से अधिक सहनशीलता
कायरता कहलाती है! 
फिर कैसे मैं चुप- चाप रहूँ? 
वे करते हैं अस्त्र- शस्त्र से वार, 
मैं कलम से भी ना प्रहार करूँ? 
तुम्हें शोभा देता होगा चुप रहना, 
पर मेरे लिए धिक्कार है! 
जब पानी सर...........
चीरहरण हो रहा द्रोपदी का 
कैसे मैं नज़रअंदाज़ करूँ? 
जी करता है उस हैवान के प्राण हरूँ, 
और तुम कहते हो, 
मैं जीना भी ना दुशवार करूँ!  
जो क्षमा के पात्र नहीं, 
उसकी दया यचिका, 
कैसे मैं स्वीकार करूँ? 
माफ़ी गलती की दी जाती है, 
गुनाहों को कैसे मैं माफ़ करूँ? 
जब पानी सर............ 



मंगलवार, मई 11, 2021

सत्ता के गुलाम बनते कलम के सिपाही

ℝ𝔼𝔸𝕃𝕋𝕐 𝕆𝔽 𝕀ℕ𝔻𝕀𝔸ℕ 𝕄𝔼𝔻𝕀𝔸
एक वक्त था जब जब सामाजिक बदलाव और अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए पत्रकारिता को सबसे मजबूत हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता था! मिसाल के तौर पर राजा राममोहन राय जी जिन्होंने सती प्रथा को खत्म करने के लिए 'संवाद कौमुदी' पत्रिका को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और सती प्रथा को खत्म कराने में सफल भी रहे! 
ऐसे ही नहीं अकबर इलाहाबादी जी ने कहा है कि
" खींचो न कमानों को, न तलवार निकालों, 
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालों! "
पर वर्तमान की स्थिति कुछ और ही कह रही है
अभिव्यक्ति की बात करने वाले खुद अपने विचार खुल कर नहीं रख पाते!  मीडिया का काम एक वक्ता का होता है पर वक्ता कम प्रवक्ता ज्यादा नज़र आते है, साफ़ शब्दों में कहें तो नेताओं की पैरवी कर रहे वर्तमान के पत्रकार! 
जोकि बहुत ही चिंताजनक है! मिसाल के तौर पर किसी दंगे या हड़ताल के वक्त अधिकतर पुलिस का ही पक्ष रखते नज़र आते हैं खोजी पत्रकारिता बहुत ही कम देखने को मिलती है जो सच को सामने लाये!
आज कोरोनाकाल के वक्त जासूसी पत्रकारिता की सख्त जरूरत है सच्चाई को जनता, सत्ता और विपक्ष के सामने ला कर अस्पताल में हो रहें कालाबाज़ारी को रोकने में बहुत अहम भूमिका निभा सकती है ! पर अफ़सोस.................!
अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करने वाले क्या अपने विचार खुल कर रख रहे हैं❓ जो अपने विचार खुल कर रख पाने में  सक्षम नहीं है, वे सच को क्या खाक सामने लायेंगे! इसीलिए तो लोग आज इन्हें  वक्ता कम और  प्रवक्ता ज्यादा मानते हैं!  और यही सच्चाई है! क्योंकि अब कलम के सिपाही न रह कर सत्ता के गुलाम बन  रहेें हैं!     
 प्रेस की भूमिका एक वॉचडॉग की होनी चाहिए जो परिवेश पर चौकन्नी निगाह रखे और खतरे की आशंका पर आवाज़ बुलंद करे! 
पर वर्तमान स्थिति कुछ और ही कह रही है! 
कहते हैं जेल की या और किसी की दिवारें इतनी ऊचीं नहीं जो अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरे लगा सके! 
ये बात सबको पता इसीलिए तो पत्रकारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरा लगाने के लिए चारदीवारी का इस्तेमाल न करके उस चीज का इस्तेमाल कर रहे है जिससे पहरा लग सके! इसलिए तो अब पत्रकारिता का दूसरा नाम चाटूकारिता हो गया है! 
मेरी नज़र में पत्रकारिता का मतलब सिर्फ समाचार कहना ही नहीं है, पत्रकारिता का सही अर्थ है जो निशपक्षता से सारी सच्चाई सामने लाये और जनता की आवाज़ बने और जो बेलगाम अभिव्यक्ति से भी ज्यादा जनहित को तवज्जो दे! 
पर वर्तमान की पत्रकारिता खुद के हितों को ज्यादा तवज्जो दे रही है! इतनी ज्यादा कि पत्रकार आपस में ही लड़ रहे है, समाचार की सुर्खियां कहने वाले खुद समाचार की सुर्खियां बन रहें हैं! 
ऐसा लगता है जैसे हमारे पत्रकारों ने समाचार मूल्य पश्चिम की पत्रकारिता से उधार ले लिया है! राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अखबारों और चैनलों ने जिस तरह दलितों और पिछड़ों की अनदेखी कर मुक्त बाज़ार के पक्ष में आवाज़ बुलंद की है! किसी बड़ी सेलीब्रिटी की आत्महत्या या हत्या 'राष्ट्रीय मुद्दा' बन जाती है मै ये नहीं कहती किसी सेलीब्रिटी के लिए आवाज़ न उठाएं, शौक से डंके की चोट पर उठाओ पर उठाएं पर गाँव में हो रही हत्याएँ और किसानों की आत्महत्या के वक्त मुंह में दही न जमाएं! 
हां गाहे बगाहे वंचित वर्ग के साथ हो रहे अमानवीय बर्ताव को बहस का मुद्दा बनाते हैं विकासपरक संचार ने इसे इतनी ताकत दी है जिससे वंचित वर्ग को आसानी से न्याय दिलाया जा सकता है, किंतु अक्सर इस प्रेस की भूमिका मूकदर्शक की रह जाती है और उठाते भी है तो अनसुनी रह जाती है! एक अध्ययन के मुताबिक़ बीस हज़ार खबरों में सिर्फ एक हज़ार खबर ही ग्रामीण क्षेत्रों और नीचे तबके के लोगों की होती है! ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वर्तमान में स्वंतत्र और विकासपरक पत्रकारिता को दरकिनार करके पीत पत्रकारिता (सनसनी खेज फैलाने वाली पूंजीपतियों की खबर) को ज्यादा तवज्जो दिया जा रहा है! 
नेपोलियन ने कहा था कि
"चार विरोधी अखबारों का भय, 
एक हज़ार संगीनों के भय से भी ज्यादा है!"
पर भय होगा जब विरोधी होंगे तब न कुछ को छोड़ दे तो लगभग सब दोस्त बने बैठे है! इसलिए इसे गोदी मीडिया भी कहते हैं क्योंकि ये हमेशा सत्ता के गोद में खेलना पसंद करते है फिर चाहे सत्ता पक्ष की हो या विपक्ष की! 
            ◦•●◉✿MANISHA GOSWAMI✿◉●•◦

 

रविवार, मई 09, 2021

माँ

वो पहाड़ सी  मजबूत है, 
है फूल -सी वो कोमल! 
वो करुणा की है मूरत, 
जिसके आगे , 
है फीकी सारी सूरत! 
थोड़ी नासमझ और बहुत ही मासूम है, 
ठंडी में आंगन की सुनहरी धूप है! 
सूरज की तपती दुपहरी में ,
वो तरूवर की छांव है!
मुस्कान उसकी अध खिले फूल- सी, 
गहरी है वो समंदर -सी, 
नाजुक है वो ओस- सी
युध्द के क्षेत्र में ,  
चमकती तलवार सी ! 
अंधियारों में चिराग सी, 
अडिग है चट्टान सी
शब्दों में नहीं कर सकते बयां 
ऐसा उसका प्यार है
उसकी सबसे अलग है पहचान ! 
वो  इस संसार में ,
और उसी से संसार! 
माँ से  ही होता है, 
इस सृष्टि का निर्माण! 
माँ के चरणों को शत्-शत्  प्रणाम!





मंगलवार, मई 04, 2021

सफर जिंदगी का

 जिन्दगी भी अब मेरे साथ इन्सानो की तरह खेल, खेल रही है,

ना साथ छोड़ रही है ना ही ठीक से साथ निभा रही है!
जिन्दगी और मौत की इस लडा़ई को, 
मैं अकेली लड़ रही हूँ
जिन्दगी के इस सफर में अकेली पड़ रही हूँ!
बेज़ुबा की आवाज बन कर, 
उनके हिस्से की लडा़ई लड़ने की चाह थी,
पर आज खुद चुप चाप जिन्दगी और मौत की लडा़ई लड़ रही हूँ!
लोगों की की मदद करने की चाह थी, 
पर आज खुद मदद के पात्र बन रहीं हूँ
 अब तक मेरे विचारो का मजाक बनता था , 
पर अब जिन्दगी मेरा मजाक बना रही है!
जो कभी प्यार से गले लगाया करती थी,
वही हमारे अपनो की तरह ,
गले लगा कर खंजर घोपने का,
पीठ पीछे षड़यंत्र रच रही है!
छोटी छोटी मुसिबते, 
अपनों में छुपे गैरों के चेहरे बेनकाब कर रही है! 
छोटी सी जिन्दगी, अनुभव बड़े दे रही है,
और मै इस दर्द भरे एहसास और अनुभव को,
अपने शब्दों में पिरो कर कोरे कागज पर उतार कर, 
इस दर्द को कम करने की कोशिश कर रहीं हूँ! 
रूठी है किस्मत,मगर हिम्मत है हारी नहीं!
इतनी आसानी से हालत के आगे, 
मैं घुटने टेकने वाली नहीं! 

नारी सशक्तिकरण के लिए पितृसत्तात्मक समाज का दोहरापन

एक तरफ तो पुरुष समाज महिलाओं के अधिकारों और उनके सम्मान की बात करता है और वहीं दूसरी तरफ उनके रास्ते में खुद ही एक जगह काम करता है। जब समाज ...