एक तरफ तो पुरुष समाज महिलाओं के अधिकारों और उनके सम्मान की बात करता है और वहीं दूसरी तरफ उनके रास्ते में खुद ही एक जगह काम करता है। जब समाज की बात आती है तो खुद को महिलाओं का सबसे बड़ा शुभचिंतक बताने में कोई भी पुरुष पीछे नहीं रहता लेकिन जब बात अपने परिवार में किसी महिला के साथ हो रहे अन्य, घरेलू हिंसा जैसी आती है जब उसके साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ न्याय की बात आती है। तो घर की बात घर में ही सुलझा देने के नाम पर महिलाओं के अधिकारों के संबंध में और उसके स्वभिमान और सम्मान से अधिक, रिश्तों को महत्व देते हैं जबकि पुरुषों के साथ ऐसा कुछ भी नहीं करते। पुरुष के लिए आत्मा सम्मान सर्वोपरि होता है, कोई पुरुष खुद को कितना भी आधुनिक क्यों न कह ले पर स्त्री के मामले में वह अपने पूर्वजों के पदचिन्हों पर चलना ही पसंद करता है। हाँ, कुछ भी अपवाद निश्चित रूप से हैं पर बहुत कम,सौ में एक हैं। पर दिखावा करने वाले की कोई कमी नहीं है ये लोग जो खुद को महिलाओं का शुभचिंतक बताते हैं या उनके अधिकार की बड़ी बड़ी बातें करते हैं वे लोग यह नियम क्यों नहीं शुरू करते हैं कि जिस तरह महिलाओं को अपने पति का नाम लिखना हर सरकारी व निजी दस्तावेज़ में लिखना ज़रूरी होता है वैसे ही पुरुषों के लिए भी अपनी पत्नी का नाम लिखना अनिवार्य होना चाहिए। और अगर नहीं कर सकते तो फिर इस नियम से महिलाओं को भी स्वतंत्र कर देना चाहिए। ये जो कुछ महापुरुष स्वयं को महिलाओं के शुभचिंतक होने का दावा करते हैं और उनके सम्मान की बात करते हैं उनसे एक प्रश्न है मेरा कि जब कोई व्यक्ति कायरतापूर्ण कार्य करता है तो उसे महिला के रूप में क्यों देते हैं अपनी महिलाओं को वक्र क्यों देते हैं क्या महिलाओं की वक्रता का प्रतीक है? क्या चूड़ी, बिंदी सिंदूर कायरता की निशानी है या फिर महिलाएं ? और जब कोई महिला कोई साहसिक कार्य करती है तो उसे मर्दानी क्यों कहते हैं कि पुरुष क्या साहसिक कार्य करते हैं? ये कैसा सम्मान है क्या कोई यादगार? और ये शुभचिंतक व महिलाओं के सबसे बड़े हितैषी जब कोई चुनाव के पोस्टर शुभकामनाओं आदि में किसी महिला के नाम के साथ उसके पति का नाम लिखा होता है कि फला व्यक्ति की पत्नी उसी तरह पुरुषों के नाम के साथ क्यों नहीं लिखती कि किसी व्यक्ति के नाम के साथ पति?आज इक्कीसवीं शदी में भी दावा किया जाता है कि स्वतंत्रता और केवल 'पौरुष' के लक्षण हैं तभी तो जब कोई महिला कोई साहस कार्य करती है तो उसे मरदानी कहा जाता है और जब कोई पुरुष कोई कायरता पूर्ण हरकत करता है तो उसकी उपमा महिलाओं से किया जाती है, बहुत से ऐसे कार्यलय मिल जाएंगे जहां सिर्फ पैंट शर्ट पहनने की ही अनुमति है महिलाओं को, कहने को तो सिर्फ ये कपड़े हैं। पर इसकी गहराई में जाकर देखें तो इसकी हक़ीक़त क्या ज्ञात होगी। जब कोई महिला किसी उच्च पद पर आसीन होती है तो उसे मैम या मैडम जी कह सम्बोधित नहीं किया जाता है बल्कि उसे सर कह कर सम्बोधित किया जाता है इसके पीछे यह धारणा है कि सर शब्द ताकत को चित्रित करता है, इसका एक उदाहरण धारावाहिक "मैदम सर" भी! ये तो धारावाहिक है पर वास्तव में ऐसा ही होता है और धारावाहिक, फिल्म ये सब वास्तविक समाज पर ही आधारित होते हैं। यह पितृसत्ता का सबसे भयावह उदाहरण है अधिकतर शब्द जो ताकत जैसे हिम्मत, साहस को दर्शाते हैं वे अधिकतर पुलिंग ही हैं। अर्थात पुरुषों से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं, पर पितृसत्तात्मक समाज ये बात कभी मानता कि वह स्त्रियों के साथ अत्याचारी दमनकारी व्यवहार करता है हमेशा यह कह कर अपना पल्ला झाड़ लेता है कि स्त्री के उपर पुरुषों का अधिपत्य तो सामाजिक संरचना का एक हिस्सा है।
पहले पढ़ने का शौक था अब लिखने की बिमारी है।ये कलम कभी न रुकी थी, न ही आगे किसी के सामने झुकने और रुकने वाली है।क्योंकि कलम की जिंदगी में साँसें नहीं होतीं।कवयित्री तो नहीं हूँ पर अपनी भावनाओं को कविताओं के जरिए व्यक्त करती हूँ।लेखिका भी नहीं हूँ लेकिन निष्पक्ष लेखन के माध्यम से समाज को आईना दिखाने का दुस्साहस कर रही हूँ।
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नारी सशक्तिकरण के लिए पितृसत्तात्मक समाज का दोहरापन
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मनीषा, हमारे पुरुष प्रधान समाज मे पुरुषों का इतना वर्चस्व है कि महिलाओं के साथ कुछ अनुचित होता भी है तो उसे सामान्य बात मानी जाती है। वैसे अब थोड़ा बहुत बदल हो रहा है लेकिन वो अभी भी जितना चाहिए उतना नहीं है। विचारणीय आलेख।
जवाब देंहटाएंआप बिल्कुल सही कह रही हो दी, पर गाँवों की स्थिति बहुत ही खराब है चूंकि हमारे देश का अधिकतर हिस्सा गाँव में बसता है तो गाँव में सुधार लाना सबसे अधिक जरूरी है!
हटाएंप्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद प्रिय दी 💕💝
सवाल ही सवाल हैं, जवाब कहीं से मिलता नहीं लगता। किंतु धीरे-धीरे समाज में परिवर्तन आ रहा है, नारी को स्वयं की शक्ति पहचान कर आगे बढ़ना है, सार्थक लेखन के लिए बहुत बहुत साधुवाद मनीषा जी !
जवाब देंहटाएंजी स्त्री को खुद अपने सम्मान और स्वभिमान के लिए लड़ना होगा,और महिलाएं कम जिम्मेदार नहीं है पितृसत्ता को बढ़वा देने में और महिलाओं को दबाने में! सुधार तो आ रहा है पर वो भी बहुत ही धीमी गति से और वो भी शहरों में गाँवों में आज भी स्थिति शहरों की जो बीस से तीस साल पहले रही होगी वो है!
हटाएंप्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद प्रिय मैम🙏💕
स्त्री सशक्त हो रही है... आज के दौर की इस लोकप्रिय कहन को सच्चाई का आईना दिखाया ये विचारणीय आलेख प्रशंसनीय है, इस बार से मैं भी सहमत हूं। स्त्री विमर्श की जितनी बातें की जाती हैं अगर वो लागू हो जाएं तो सचमुच स्त्री जाति का कल्याण हो जाए
जवाब देंहटाएंआप बिल्कुल सही कह रहीं हैं! प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद🙏💕
हटाएंसारगर्भित पोस्ट. बधाई
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय सर
हटाएंमेरे लेख को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए आपका तहेदिल से बहुत बहुत आभार प्रिय मैम 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंविचारणीय आलेख प्रशंसनीय है,
जवाब देंहटाएंगावों* और सर्वत्र *
जवाब देंहटाएंHi
जवाब देंहटाएंमनीषा जी नमस्ते !
जवाब देंहटाएंआपकी लेखनी दिन प्रतिदिन उम्दा होती जा रही है . . .
बहुत सुन्दर रचना !