पहले पढ़ने का शौक था अब लिखने की बिमारी है।ये कलम कभी न रुकी थी, न ही आगे किसी के सामने झुकने और रुकने वाली है।क्योंकि कलम की जिंदगी में साँसें नहीं होतीं।कवयित्री तो नहीं हूँ पर अपनी भावनाओं को कविताओं के जरिए व्यक्त करती हूँ।लेखिका भी नहीं हूँ लेकिन निष्पक्ष लेखन के माध्यम से समाज को आईना दिखाने का दुस्साहस कर रही हूँ।
शनिवार, अक्टूबर 23, 2021
एक लड़ाई उनके लिए जो हमारे लिए अपनी जान न्योछावर कर गए!
जब भी हमारे देश के रक्षक शहीद होते है ,तो आम जनता से लेकर राजनेता सब सभी श्रद्धांजलि अर्पित करके अपना दु:ख प्रकट करते हैं ,अगर इतना ही दु:ख होता है तो क्यों नहीं शहीदों के परिवार के लिए सुविधाओं सारी सुविधाए मुफ़्त कर देते ?क्यो नही उनके बच्चो की शिक्षा मुफ़्त कर देते? सरकारी और निजी हर स्कूल मे चाहे वो कितनी ही बड़ी क्यों न हो ! क्यों नहीं उनकी यात्रा को मुफ़्त कर देते? सरकरी वाहन से के साथ प्राइवेट वाहनो में भी! क्यों नही उनके लिए मुफ़्त इलाज़ की सुविधा सरकारी अस्पताल के साथ प्राइवेट अस्पताल में भी कर देते? क्यो नही कोई ऐसा कार्ड शहीदों के परिवार के लिए बनाया जाता जिससे वे सरकारी और प्राईवेट हर जगह मुफ्त शिक्षा,इलाज और यात्रा प्राप्त कर सके?जो लोग सोशलमीडिया पर जाबांज सिपाहियों के शहीद होने पर दु:ख प्रकट करते हैं, वे लोग शहीदों के परिवार के लिए आवाज़ क्यों नही बुलंद करते? हमेशा श्रद्धांजलि और सहानुभूति तक ही सीमित क्यों रह जाते हैं? सिर्फ श्रद्धांजलि अर्पित करने और सहानुभूति प्रकट करने से उन लोगों का जीवन नहीं चलने वाला ! जो अपने घर के मुखिया को खो चुके हैं! इमोशनल सपोर्ट के साथ फाइनेंशियल सपोर्ट की भी जरूरत है! क्योंकि जिंदगी क्योंकि जिंदगी सिर्फ प्यार से नहीं चलती जिंदगी जीने के लिए भौतिक सुविधाओं की सख्त जरूरत होती है! और सिर्फ मुआव़जे से काम नहीं चलेगा!कोई ऐसी योजना चलाने की जरूरत है, जिससे देश के लिए जान दे चुके शहीदों के परिवार की लाइफ सिक्योर हो सके। उनकी वे सभी जरूरतें पूरी हो सकें जिसकी उन्हें आवश्यकता है! पूरी जिंदगी के लिए ना सही पर कम से कम तब तक, जब तक कि शहीद हुए जवानों के बच्चों की शादी नहीं हो जाती! और अपने पैर पर नहीं खड़े हो जाते ! हमारे लिए जब वे जान दे सकते हैं,तो क्या हमें और हमारी सरकार को उनके परिवार के लिए इतना भी नहीं करना चाहिए कि हमारा फर्ज नहीं बनता कि उनके परिवार की लाइफ को थोड़ा बेहतर और आसान बनाने का? हम उनके लिए कुछ ना सही पर आवाज तो उठा ही सकते हैं, जिस सोशल मीडिया पर हम शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं और उनके प्रति भी संवेदना व्यक्त करते हैं,उसी सोशल मीडिया पर उनके लिए आवाज उठा सकते हैं और सोशल मीडिया को अपना सबसे बड़ा हथियार तो बना ही सकते हैं!
सोमवार, अक्टूबर 18, 2021
दांस्ता-ए- जिन्दगी
जब जिंदगी सपनों से पहले
पूरी होने वाली होती है,
तब सपने नहीं,
सिर्फ ख्वाहिशे
पूरी करने की चाह रह जाती है!
जब जिंदगी पेड़ पर लगे
उस सूखे पत्ते सी हो जाती है,
जिसकी जिंदगी तो होती है
पर जान नहीं होती!
तब मौत आने से पहले
जीजिविषा मर जाती है!
जब जिंदगी गले लगाकर पीठ में
खंजर घोपने की फिराक में होती है,
तब लंबी जिंदगी कि नहीं
सिर्फ क्षणिक आनंद महसूस
करने की चाह रह जाती है!
जब दर्द बाहों में बाहें डालकर
हर वक्त साथ चल रहा हो,
तब मौत से पहले जिजीविषा मर जाती है!
जब मंजिल तक पहुंचने से पहले
जिंदगी अपनी मंजिल को हासिल
करने का ठान लेती है!
तब मंजिल की नहीं,
सिर्फ खूबसूरत सफर में
खानाबदोश बनने की चाह रह जाती है!
जब जिंदगी रेत सी
हाथ से फिसल रही होती है!
तब लंबी जिंदगी की नहीं,
सिर्फ बड़ी जिंदगी की चाह रह जाती है!
पता तो सबको है,
कि जिंदगी की मंजिल मौत है !
फिर भी मौत के नाम से
आंखें नम हो जाती हैं!
बुधवार, अक्टूबर 13, 2021
संपूर्ण नारीत्व का पहचान है,वो पांच दिन!
जिस लाल रंग से
एक लाल का निर्माण हुआ,
इक माँ को लाल
और इक खानदान को
अपना चिराग मिला!
उसी लाल रंग को
एक माँ को अपने लाल से
छुपाना क्यों पड़ा?
यदि वह लाल रंग अशुद्ध होता है,
तो उसी अशुद्धता से
इस सृष्टि का निर्माण हुआ,
फिर कैसे कोई पवित्र
और कोई अपवित्र हुआ?
समाज समझता है जिसको घृणित,
उसी से हुआ है निर्मित!
अभिशाप नहीं, अभिमान है,
वो पांच दिन
नारी के पवित्रता का सूचक है,
वो पांच दिन
संपूर्ण नारीत्व का पहचान है,
वो पांच दिन!
स्त्री के यौवन का श्रृंगार है,
वो पांच दिन!
रूढ़िवादिता की सोच से जो दाग है,
अशुद्धता की निशानी ,
वास्तव में वो मातृत्व अवस्था में
कदम रखने की है निशानी!
उस रंग के बिना एक स्त्री
माँ होने के बजाय बांझ है बन जाती!
इती सी बात इस समाज को
समझ क्यों नहीं आती?
21वीं सदी में भी जो लोग
उस लाल रक्त को नापाक कहते हैं
ऐसी सोच को हम ख़ाक़ कहते हैं!
- मनीषा गोस्वामी
मैं देख रहीं हूँ कि बहुत से लोग ये पोस्ट देख चुकें हैं पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे रहें हैं, शायद वे ऐसे विषयों पर प्रतिक्रिया देना उचित नहीं समझते ! तारीफ न सही आलोचना तो कर ही सकते थे!
कमाल है!
आज भी ऐसी महान आत्माऐं हमारे बीच ब्लॉगर के रूप में उपस्थित हैं पर अफ़सोस हम देख नहीं सकते काश की दर्शन भी हो पाता तो हम धन्य हो जाते!
शनिवार, अक्टूबर 09, 2021
रजत पुलिन
दिवसावसान के पश्चात ,
जब आई
पूर्णिमा की रात!
चांदनी रात को ,
निरवता लगा रही थी,
चार चांद!
लोल लहरें मंद स्वर
के साथ कर रहीं थीं!
नृत्य का अभ्यास!
निरवता को तोड़ते हुए,
जा रही थी जिसकी
दूर तक आवाज!
तमिस्त्रतोम को विभेदित
करती रेशमी विभा!
बढ़ा रही थी
राका निसि की सोभा!
व्योम मण्डल की
स्वाति-घटा को,
पेखि-पेखि हृदय तल में,
उत्पन्न हो रहा था अनुराग!
मंत्रमुग्ध कर रही थी,
यमुना की अविरल धार!
यमुना के निर्मल जल में,
शशि की मोहक छवि देख,
लबों पर आ रही थी मुस्कान!
देख पूर्णिमा का अद्भुत श्रृंगार, बार-बार
मन प्रफुल्लित हो रहा था बार-बार
- मनीषा गोस्वामी
मंगलवार, अक्टूबर 05, 2021
मैं उस वक़्त सबसे असहाय होती हूंँ!
मैं उस वक्त दुनिया की
सबसे कमजोर व असहाय
शख़्स खुद को महसूस करती हूंँ,
जब रोते बच्चे के आंखों से
आंसू नहीं ले पाती हूंँ!
मैं उस वक्त सबसे
असहाय व लाचार होती हूंँ,
जब मन विचलित हो जाता है
पीड़ित लोगों के कष्ट देख
लेकिन कष्ट हर नहीं पाती हूंँ!
मेरी स्थिति उस वक्त
सबसे दयनीय होती है,
जब गलत का विरोध
ना कर पाने के कारण
खुद से लड़ रही होती हूंँ!
मैं खुद को उस वक्त
बंदी महसूस करती हूंँ,
जब रिश्तो के बंधन में
बंधने के कारण
अपने विचार भी नहीं रख पाती हूंँ!
मैं उस वक़्त खुद को
अपराधी महसूस करती हूंँ,
जब अन्याय सह रहे लोगों के
खातिर आवाज नहीं उठा पाती हूँ!
मैं उस वक्त
उस मोरनी की भांति होती हूंँ,
जिसके पर तो बहुत आकर्षक होते हैं
पर उड़ नहीं सकती है!
जब वृद्ध पिता को अपनी औलादों की
हीनता भरी निगाहों का
सामना करते देखती हूंँ!
पर अंदर ही अंदर
फड़फड़ा कर रह जाती हूँ!
मैं उस वक्त दुनिया की
सबसे गरीब शख्स होती हूंँ,
जब रंग-बिरंगे कपड़ों को
लालच भरी निगाहों से
निहार रहे बच्चे को देख
एक आंह मात्र भर कर रह जाती हूंँ!
पर कुछ नहीं कर पाती हूंँ!
मैं उस वक्त संसार की
सबसे लाचार व स्वार्थी
शख़्स होती हूंँ ,
जब अपने निजी स्वार्थ के चलते
लोगों के कष्ट देख
सिर्फ आंह भर के रह जाती हूंँ!
पर कुछ नहीं कर पाती हूंँ!
शनिवार, अक्टूबर 02, 2021
काश रिश्ते कच्ची मिट्टी-सा होते!
बचावूं कैसे?
रेत से बिखर रहे
संभालू कैसे?
कड़वे सच छीन रहे
रिश्ते मुझ से!
झूठ बोलने का
हुनर लाऊं कैसे!?
यादों की दलदल से
बाहर आऊं कैसे?
भावनाओं के सागर से
गलतफहमियों के
घड़ियालों को
निकालूं कैसे?
काच-से हो रहे रिश्ते
कच्ची मिट्टी सा
बनाऊँ कैसे?
काश!
रिश्ते काच-सा
न होकर,
कच्ची मिट्टी-सा होते!
जिससे इक नया
आकार दे सकते!
तस्वीर गूगल साभार से
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
नारी सशक्तिकरण के लिए पितृसत्तात्मक समाज का दोहरापन
एक तरफ तो पुरुष समाज महिलाओं के अधिकारों और उनके सम्मान की बात करता है और वहीं दूसरी तरफ उनके रास्ते में खुद ही एक जगह काम करता है। जब समाज ...

-
एक तरफ तो पुरुष समाज महिलाओं के अधिकारों और उनके सम्मान की बात करता है और वहीं दूसरी तरफ उनके रास्ते में खुद ही एक जगह काम करता है। जब समाज ...
-
मैं आज आप लोगो को अपने गाँव की कुछ रूढ़िवादी विचारधाराओं से रूबरू करवाती हूँ ! हमारे गाँव में आज भी कुछ ऐसे बुद्धिजीवी लोग है जिनका मानना ...
-
चित्र गूगल साभार निती अभी कक्षा आठ में पढ़ती, है अपनी माँ करुणा की तरह समाजसेवी बनने का और वृद्धाश्रम खोलने का सपना है।आज उसका म...