शुक्रवार, जुलाई 30, 2021

बुझी हुई उम्मीदों में खुद ही आशाओं के दिये जलाने पड़ते है!

तस्वीर गूगल से
कहने को सब पास होते है, 
पर बुरे वक्त में ,
सब साथ छोड़ देते हैं! 
सूख जाते है
आंसू यूं ही आंखों में
पर उसकी खबर
लेने वाला कोई नहीं होता है! 
टूट जाती हैं ,
जब सारी उम्मीदे तो
अपने भी मुंह मोड़ लेते है! 
बंद हो जाते है
जब सारे रास्ते, 
तो खुद ही रास्ते बनाने पड़ते है! 
बुझी हुई उम्मीदों में
खुद ही आशाओं के
दिये जलाने पड़ते है! 
पांव में पडे़ छाले को
खुद ही मरहम लगाने पड़ते है! 
कहने को सब पास होते है
पर पास होकर भी 
बहुत दूर होते है!
अंधेरे में तो खुद के साये भी
साथ छोड़ देते हैं
अकेले ही लड़नी होती है
हर लड़ाई लोगों का सैलाब 
तो जीतने के बाद उमड़ता है! 

 

शनिवार, जुलाई 24, 2021

वो जिस्म बेचती है तो वो बाजारू कहलायी लेकिन जिस्म को खरीदने वाले.....?

गूगल से
पता है कि मुझे बहुतों को मेरा ये लेख आपत्तिजनक और भेद्यता से भरा हुआ है! रास नहीं आयेगा शीर्षक देखकर ही अनदेखे कर देंगे ! लेकिन इससे हक़ीक़त नहीं बनी! 
वैश्य बदलान और चरित्रहीन तो ही इस लिए समाज का तिरस्कार और समाज कई नाम दिए गए खमोशी के साथ अलर्ट है! पर क्या कोई और जन्म से ही वैश्य होता है ?क्या वो पैदाइशी चरित्रहीन होती है ? क्या उसके माथे पर लगे वैश्य के ठप्पे में अकेले उसका हाथ खुल जाता है? हाँ वो जिस्म बेचती है वो चरित्रहीन ! उसकी अपनी कोई इज्जत नहीं! उनका चरित्र क्या बनाता है? जो इसके जिस्म को अपने हवस के दृष्टिकोण तक पहुंचने के लिए जीत गए हैं और उनके नाम पर वैश्य के ठप्पा उम्मीदवार हैं? रात के अंधेरे में रात में जाने वाले सरफजादे और नवाबजादो को किसी का नाम क्यों नहीं दिया गया? क्या इसलिए कि ये लोग छिप कर करते हैं? और
वैश्य डंके की चोट पर आपका जिस्म का व्यापार करता है तभी तो पूरे विश्व का तिस्कार सहती है! 
उन चरित्रवान पुरुषों का क्या है जो उनकी पत्नी, उनके परिवार की उपस्थिति से बचकर अपनी हवस के लिए बदनाम सड़कों पर निकल जाते हैं? क्या ये लोग चरित्रहीन नहीं होते?ये लोग तो चरित्रहीन होने के साथ धोखेबाज़ और विश्वास भी होते हैं। वैश्य फिर भी धोखेबाज नहीं होती वो अपना जिस्म व्यापार करती है पर किसी की भावनाओं के साथ विश्वास नहीं करती। 
अगर वो किसी दायरे में रहता है, तो ये समाज के अभिषेक भी जिस्म के अटक जाते हैं! 
जिस बदनाम गलियों को सुबह के उजाले में तिरस्कार भरी नजरों से देखते हैं, रात होती ही वही बदनाम गलियों में अपनी रात रंगे हुए होते हैं !वो अपना जिस्म बेचती है, तो ये भी तो अपना ईमान पहचानते हैं!तो फिर उसे ही अकेले में हमेशा बदनाम क्यों किया जाता है? 
वैश्या अति संस्कारी और चरित्रवान पुरुषों की हवस को छिपाने वाले वो श्रेणी में ही आते हैं ये पुरुष समाज के सामने इस तरह के स्वभाव होंगें कि फिर नामांकन धारण करने के काबिल ही नहीं जीतेंगे!मुहं छिपाने की जगह नहीं मिलेगी! 
और चरित्रवान होने का ढोंग करने वालों का घमण्ड और परिवार एक साथ इस तरह टूटेगा कि फिर उसे दुनिया के सबसे काबिल कलाकार भी नहीं जोड़ेंगे! 
और अगर सभी लोग इतने ही चरित्रवान हैं तो फिर इन वैश्यों का धंधा आज भी कैसे चल रहा है? लागत है? विशिष्ट कौन है जो उन बदनाम गलियों में जाता है? क्या वो गरीब, जो दो घंटे की रोटी के लिए पूरे दिन मेहनत करता है लेकिन रात को पैसे जुटाता है उसी का जिस्म की भूख साफ हो गई है? लेकिन ये भी सच है कि सभी अमीर जिस्म के लिबास नहीं होते पर जिस्म की कीमत लगाने वाले सभी अमीर ही होते हैं! 
और गरीब जिन और मध्यवर्गीय हवस के शिकारियों की पहुंच से ये कोठा होता है कि वे हवस को मिटाने के लिए रेपी बन जाते हैं! शुक्रगुजरा होना चाहिए वैश्यों का, कि वैश्यवृत्ति की बदलोलत रिसजादे रेपी नहीं बने, नहीं तो न्याय की कल्पना करना भी दुशवार हो जाता है ! 
ये सच है कि इस समाज की नजर में वैश्य की कोई इज्जत और औकात नहीं है क्योंकि ये इसी के हकदार हैं! लेकिन ये बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि ये वैश्य बनाने वाले इस समाज के लोग ही हैं! और ये बातें भी याद रखना चाहिए कि वैश्य की नजरों में नोटों से नकली नवाब और चरित्रवान होने का ढोंग करने वालो की कोई औकात नहीं! तो क्या कोई मुझे बता सकता है कि कौन अधिक गिरा हुआ इंसान है वो जो सबकी नजरों में गिरा है या फिर वो जो, सबकी नजरों में गिरने वाले इंसान( वैश्या) की नजर में गिरा है? 
वैश्या अपने पेट की आग से बचने के लिए अपने जिस्म को बेचती है और ये चरित्रवान लोग अपने हवस की भूख मिटाने के लिए अपने ईमान को जिस्म के नाम हैं! जब निवस्त्र दोनों होते हैं, तो फिर एक पर ही क्यों कलंक का ठप्पा लगता है? किसी एक को ही क्यों वैश्य का नाम मिलता है? 
जिस्म को करके हवस के पुजारियों का विवरण, 
चड़ा हो गया है, 
एक कोने में जाके! 
स्तब्ध सी निहारती रहती है , 
जिस्म को नोच वन गिद्धों को, 
और इक वैश्य के आगे बेनकाब हुआ शराफत को! 
नोट- आलोचनात्मक टिप्पणी करने की स्वतंत्रता है! शब्दों की मर्यादा ध्यान रखें! 

सोमवार, जुलाई 19, 2021

काले मेघ

तस्वीर गूगल से
कच्ची माटी के गाँव में , 
जब काले-काले मेघ आते हैं, 
कृषक  के मन में उम्मीदों का दिया जलाते है । 
जब रंग - बिरंगी फसलों पर, 
काली घटा छा जाती है। 
फिर रंग - बिरंगे दानों में, 
मोती सी चमक आ जाती है 
कच्ची माटी के गाँव में, 
जब काले- काले मेघ आते है। 
सूरज की आग से झुलस चुके 
चरागाहों को फिर से हरा भरा कर जाते है
गीली माटी का ठण्डा पन , 
हवा के झोंको में भर जाते हैं
कच्ची माटी के गाँव में जब 
निखरे - निखरे मौसम -आते हैं
गीली माटी की सोंधी खुशबू से 
घर आँगन महका जाते हैं! 
मीठी हरियाली की खुशबू, 
मंद हवाओ संग सुनहरी किरणों के साथ
हर दरवाजे़ पर दस्तक दे जाती है । 
सुबह ओस से गीले खेतों को, 
सुनहरी किरणें जब स्पर्श करती है , 
किसानो के लबों पे , 
मोती सी मुस्कान बिखेर जाती है । 
कच्ची माटी के गाँव में , 
काले मेघ अपने संग खुशियाँ लाते हैं! 

शुक्रवार, जुलाई 16, 2021

जितनी तकलीफ़ सपने अधूरें रह जाने पर होती है, उतनी खुशी पूरा होने पर क्यों नहीं मिलती?

मेरी रचना "जिंदगी की शाम" जिसको अमर उजाला की सप्ताहिक पत्रिका रुपायन में 14 मई  को प्रकाशित किया गया । जिसे अगर आप देखना चाहते हैं तो लेबल-  अकेलापन पर क्लिक करके देख सकते हैं! 
प्रकाशित हुए तो महीनों हो गयें पर मुझे जानकारी अभी  हाल ही में मिली क्योंकि उस वक्त अखबार वाले चाचा जी बिमार थे इसलिए अखबार नहीं आ पा रहा था और जिस फोन से मैंने रचना को प्रकाशित करने के लिए ई -मेल किया था वो फोन भी खराब था! 
खैर,  
अब मुद्दे पर आते हैं, मेरा मकसद आप लोगो को ये बताने का नहीं कि मेरी रचना प्रकाशित की गई,  बल्कि मेरे मन  में उठ रहे कुछ सवालों का जवाब ढूढ़ना है! जब मैंने अपनी रचना को प्रकाशित करने के लिए  भेजा था, तब मैं बहुत उत्साहित और खुश थी, ये बात सोच कर  कि जिस दिन मेरी रचना रूपायन में प्रकाशित होगी उस दिन  उन लोगों का मुंह बंद हो जाएगा जो मेरे हुनर का मजाक उड़ाते हैं , और जब मेरे दादा जी मेरी फोटो के साथ मेरी रचना को रूपायन में देखेंगे तो बहुत खुश होगें! (ये रचना मैंने अपने दादा जी पर ही लिखी है) 
हर शुक्रवार का मैं बेसब्री से इंतज़ार करती रहती थी ! और पत्रिका उठा कर देखती , मेरी कविता प्रकाशित न होने पर मैं बहुत ही निराश हो जाती थी, क्योंकि दिसम्बर से मैं प्रकाशित कराने के लिए कोशिश कर रही थी! मेरे लिए सपने जैसा हो गया था प्रकाशन कराना! ऐसा लगता था कि वो दिन बहुत ही खूबसूरत होगा मेरे लिए जिस दिन मेरी रचना को रूपायन में जगह मिलेगी! किन्तु अब जब प्रकाशित हो चुकी  है,तो मुझे कुछ खास खुशी नहीं मिली, उतनी भी नहीं जितनी प्रकाशित न होने पर निराशा  और तकलीफ़ मिलती थी! 
ऐसा क्यों होता है कि जितना सपने के सच होने के बारे में सोच कर खुशी मिलती है, उतनी खुशी सच होने पर नहीं मिलती? 
मैं मानती हूँ ये बहुत बढ़ी उपाधि नहीं है पर ये भी सच है कि मेरी उम्र के जितने लोग मेरे पहचान के हैं उनसे तुलना करें तो इतनी छोटी भी नहीं है! 
किन्तु जब ये ख्वाहिश अधुरी थी, तो बहुत ही बड़ी बात लगती थी, ऐसा क्यों होता है, कि जब सपने या ख्वाहिशें अधूरी रह जाती हैं तो बहुत बड़ी बात और  महत्वपूर्ण लगती हैं ,और उसके लिए किये गए प्रयास बहुत ही अधिक लगते हैं पर जब पूरी हो जाती हैं तो सारे प्रयास बहुत ही कम लगते हैं? और अब मुझे ऐसा लगता है कि उस दिन मुझे असली खुशी मिलेगी जिस दिन मेरी पुस्तक प्रकाशित होगी! मुझे ऐसा क्यों लगता है कि जितनी खुशी खुली आँखों से सपने देखने मिलती है   उतनी खुशी सच होने पर नहीं मिलती? जीतने के बाद, जीत के लिए किये गए सारे संघर्ष  हम कुछ ही दिनों में भूल जाते हैं,और वही जब सपना अधूरा रह जाता है तो खुशी की तुलना में कहीं अधिक तकलीफ़ मिलती है जो महीनों तो कभी कभी सालों तक बरकरार रहती है क्यों? फिर सपना छोटा हो या बड़ा, हार छोटी हो या बड़ी! 
ऐसा क्यों होता है? 


नारी सशक्तिकरण के लिए पितृसत्तात्मक समाज का दोहरापन

एक तरफ तो पुरुष समाज महिलाओं के अधिकारों और उनके सम्मान की बात करता है और वहीं दूसरी तरफ उनके रास्ते में खुद ही एक जगह काम करता है। जब समाज ...