सोमवार, नवंबर 15, 2021

खेल-ए-जिंदगी

अचानक महसूस होता है 
कि मैं क्यों हूँ ? 
अचानक मरने की इच्छा, 
अचानक मरने का डर! 
अजीब-सी है मन में हलचल ! 
अचानक क्रोध,
अचानक हंसी का नाट्य, 
कभी लगता, हूँ बिमार, 
कभी अत्यंत कमजोर
तो कभी मजबूत चट्टान! 
अजीब से हैं हालात! 
कभी भीड़ में भी 
तन्हाई का एहसास 
और कभी अकेले में 
भी हजारों के साथ! 
सुख की निर्मम भोलेपन में 
छिप जाती दुख की गठरी, 
कभी जिंदगी पकड़ती रफ़्तार 
तो कभी लगती ठहरी! 
कभी जिंदगी सर्द की 
सुनहरी धूप-सी 
तो कभी लगती 
जेठ की तपती दोपहरी! 

               चित्र गूगल से साभार


19 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार
    (16-11-21) को " बिरसा मुंडा" (चर्चा - 4250) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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  2. जीवन के अनसुलझे प्रश्न खोजती सुंदर रचना,🙏
    आपसे निवेदन है कि जीवन के कुछ और अनसुलझे प्रश्नों को सुलझाने क लिए जरूर पढ़े मेरी रचना "जीवन"
    https://shayarikhanidilse.blogspot.com/2021/07/blog-post.html

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  3. सारगर्भित कविता।हार्दिक शुभकामनाएं

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  4. कभी जिंदगी सर्द की
    सुनहरी धूप-सी
    तो कभी लगती
    जेठ की तपती दोपहरी!
    बहुत खूबसूरत सृजन ।

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  5. जीवन की विसंगतियाँ हैं ये सब, मन का प्रलाप।
    बहुत सुंदर सृजन।

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  6. प्रिय मनीषा, जीवन के इन्ही प्रश्नों से उलझता कविमन सृजन की ओर अग्रसर होता है। मन की कशमकश को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है आपने। ढेरों शुभकामनाएं और प्यार आपके लिए।

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  7. गमों का सिर्फ एक ही रंग होता है दर्द का ,
    चाहें वो किसी भी रंग रूप भेष-भूषा में आय -
    हो जेठ कि तपती दोपहरी या सर्द कि धुप सुनहरी ।

    सुन्दर अति सुन्दर रचना |

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  8. जीना है, मन है, सांसें हैं ... संवेदना है
    ऐसे सवाल तो उठने स्वाभाविक ही हैं ... पर इनको सही दिशा देना ज्याद अच्छा है ...

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