कि मैं क्यों हूँ ?
अचानक मरने की इच्छा,
अचानक मरने का डर!
अजीब-सी है मन में हलचल !
अचानक क्रोध,
अचानक हंसी का नाट्य,
कभी लगता, हूँ बिमार,
कभी अत्यंत कमजोर
तो कभी मजबूत चट्टान!
अजीब से हैं हालात!
कभी भीड़ में भी
तन्हाई का एहसास
और कभी अकेले में
भी हजारों के साथ!
सुख की निर्मम भोलेपन में
छिप जाती दुख की गठरी,
कभी जिंदगी पकड़ती रफ़्तार
तो कभी लगती ठहरी!
कभी जिंदगी सर्द की
सुनहरी धूप-सी
तो कभी लगती
जेठ की तपती दोपहरी!
चित्र गूगल से साभार
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार
(16-11-21) को " बिरसा मुंडा" (चर्चा - 4250) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
🙏🙏🙏
हटाएंजीवन के अनसुलझे प्रश्न खोजती सुंदर रचना,🙏
जवाब देंहटाएंआपसे निवेदन है कि जीवन के कुछ और अनसुलझे प्रश्नों को सुलझाने क लिए जरूर पढ़े मेरी रचना "जीवन"
https://shayarikhanidilse.blogspot.com/2021/07/blog-post.html
🙏🙏🙏
हटाएंसारगर्भित कविता।हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएं🙏🙏🙏
हटाएं🙏🙏
जवाब देंहटाएंकभी जिंदगी सर्द की
जवाब देंहटाएंसुनहरी धूप-सी
तो कभी लगती
जेठ की तपती दोपहरी!
बहुत खूबसूरत सृजन ।
🙏🙏🙏
हटाएंवाह।
जवाब देंहटाएं🙏🙏🙏
हटाएंजीवन की विसंगतियाँ हैं ये सब, मन का प्रलाप।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन।
🙏🙏🙏
हटाएंप्रिय मनीषा, जीवन के इन्ही प्रश्नों से उलझता कविमन सृजन की ओर अग्रसर होता है। मन की कशमकश को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है आपने। ढेरों शुभकामनाएं और प्यार आपके लिए।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद और आभार🙏🙏🙏
हटाएंगमों का सिर्फ एक ही रंग होता है दर्द का ,
जवाब देंहटाएंचाहें वो किसी भी रंग रूप भेष-भूषा में आय -
हो जेठ कि तपती दोपहरी या सर्द कि धुप सुनहरी ।
सुन्दर अति सुन्दर रचना |
🙏🙏🙏
हटाएंजीना है, मन है, सांसें हैं ... संवेदना है
जवाब देंहटाएंऐसे सवाल तो उठने स्वाभाविक ही हैं ... पर इनको सही दिशा देना ज्याद अच्छा है ...
🙏🙏🙏
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