मंगलवार, मई 11, 2021

सत्ता के गुलाम बनते कलम के सिपाही

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एक वक्त था जब जब सामाजिक बदलाव और अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए पत्रकारिता को सबसे मजबूत हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता था! मिसाल के तौर पर राजा राममोहन राय जी जिन्होंने सती प्रथा को खत्म करने के लिए 'संवाद कौमुदी' पत्रिका को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और सती प्रथा को खत्म कराने में सफल भी रहे! 
ऐसे ही नहीं अकबर इलाहाबादी जी ने कहा है कि
" खींचो न कमानों को, न तलवार निकालों, 
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालों! "
पर वर्तमान की स्थिति कुछ और ही कह रही है
अभिव्यक्ति की बात करने वाले खुद अपने विचार खुल कर नहीं रख पाते!  मीडिया का काम एक वक्ता का होता है पर वक्ता कम प्रवक्ता ज्यादा नज़र आते है, साफ़ शब्दों में कहें तो नेताओं की पैरवी कर रहे वर्तमान के पत्रकार! 
जोकि बहुत ही चिंताजनक है! मिसाल के तौर पर किसी दंगे या हड़ताल के वक्त अधिकतर पुलिस का ही पक्ष रखते नज़र आते हैं खोजी पत्रकारिता बहुत ही कम देखने को मिलती है जो सच को सामने लाये!
आज कोरोनाकाल के वक्त जासूसी पत्रकारिता की सख्त जरूरत है सच्चाई को जनता, सत्ता और विपक्ष के सामने ला कर अस्पताल में हो रहें कालाबाज़ारी को रोकने में बहुत अहम भूमिका निभा सकती है ! पर अफ़सोस.................!
अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करने वाले क्या अपने विचार खुल कर रख रहे हैं❓ जो अपने विचार खुल कर रख पाने में  सक्षम नहीं है, वे सच को क्या खाक सामने लायेंगे! इसीलिए तो लोग आज इन्हें  वक्ता कम और  प्रवक्ता ज्यादा मानते हैं!  और यही सच्चाई है! क्योंकि अब कलम के सिपाही न रह कर सत्ता के गुलाम बन  रहेें हैं!     
 प्रेस की भूमिका एक वॉचडॉग की होनी चाहिए जो परिवेश पर चौकन्नी निगाह रखे और खतरे की आशंका पर आवाज़ बुलंद करे! 
पर वर्तमान स्थिति कुछ और ही कह रही है! 
कहते हैं जेल की या और किसी की दिवारें इतनी ऊचीं नहीं जो अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरे लगा सके! 
ये बात सबको पता इसीलिए तो पत्रकारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरा लगाने के लिए चारदीवारी का इस्तेमाल न करके उस चीज का इस्तेमाल कर रहे है जिससे पहरा लग सके! इसलिए तो अब पत्रकारिता का दूसरा नाम चाटूकारिता हो गया है! 
मेरी नज़र में पत्रकारिता का मतलब सिर्फ समाचार कहना ही नहीं है, पत्रकारिता का सही अर्थ है जो निशपक्षता से सारी सच्चाई सामने लाये और जनता की आवाज़ बने और जो बेलगाम अभिव्यक्ति से भी ज्यादा जनहित को तवज्जो दे! 
पर वर्तमान की पत्रकारिता खुद के हितों को ज्यादा तवज्जो दे रही है! इतनी ज्यादा कि पत्रकार आपस में ही लड़ रहे है, समाचार की सुर्खियां कहने वाले खुद समाचार की सुर्खियां बन रहें हैं! 
ऐसा लगता है जैसे हमारे पत्रकारों ने समाचार मूल्य पश्चिम की पत्रकारिता से उधार ले लिया है! राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अखबारों और चैनलों ने जिस तरह दलितों और पिछड़ों की अनदेखी कर मुक्त बाज़ार के पक्ष में आवाज़ बुलंद की है! किसी बड़ी सेलीब्रिटी की आत्महत्या या हत्या 'राष्ट्रीय मुद्दा' बन जाती है मै ये नहीं कहती किसी सेलीब्रिटी के लिए आवाज़ न उठाएं, शौक से डंके की चोट पर उठाओ पर उठाएं पर गाँव में हो रही हत्याएँ और किसानों की आत्महत्या के वक्त मुंह में दही न जमाएं! 
हां गाहे बगाहे वंचित वर्ग के साथ हो रहे अमानवीय बर्ताव को बहस का मुद्दा बनाते हैं विकासपरक संचार ने इसे इतनी ताकत दी है जिससे वंचित वर्ग को आसानी से न्याय दिलाया जा सकता है, किंतु अक्सर इस प्रेस की भूमिका मूकदर्शक की रह जाती है और उठाते भी है तो अनसुनी रह जाती है! एक अध्ययन के मुताबिक़ बीस हज़ार खबरों में सिर्फ एक हज़ार खबर ही ग्रामीण क्षेत्रों और नीचे तबके के लोगों की होती है! ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वर्तमान में स्वंतत्र और विकासपरक पत्रकारिता को दरकिनार करके पीत पत्रकारिता (सनसनी खेज फैलाने वाली पूंजीपतियों की खबर) को ज्यादा तवज्जो दिया जा रहा है! 
नेपोलियन ने कहा था कि
"चार विरोधी अखबारों का भय, 
एक हज़ार संगीनों के भय से भी ज्यादा है!"
पर भय होगा जब विरोधी होंगे तब न कुछ को छोड़ दे तो लगभग सब दोस्त बने बैठे है! इसलिए इसे गोदी मीडिया भी कहते हैं क्योंकि ये हमेशा सत्ता के गोद में खेलना पसंद करते है फिर चाहे सत्ता पक्ष की हो या विपक्ष की! 
            ◦•●◉✿MANISHA GOSWAMI✿◉●•◦

 

15 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर ढंग से आपने पत्रकारिता के बदले परिवेश को प्रस्तुत किया है

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  2. सारगर्भित सुंदर लेख प्रिय मनीषा।

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    1. 🙏🙏🙏धन्यवाद मैम, आती रहिएगा🙏🙏🙏🙏

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  3. इस विषय पर मैं भी लिख चुका हूं क्योंकि मेरे विचार भी आपके जैसे ही हैं। आपके इस लेख का एक-एक शब्द सच्चा है जिससे कोई नहीं मुकर सकता। पत्रकार ही नहीं, कवि और ब्लॉगर भी आपको सत्ताधारियों का पादुका-पूजन करते हुए मिल जाएंगे।

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  4. आज कोरोनाकाल के वक्त जासूसी पत्रकारिता की सख्त जरूरत है सच्चाई को जनता, सत्ता और विपक्ष के सामने ला कर अस्पताल में हो रहें कालाबाज़ारी को रोकने में बहुत अहम भूमिका निभा सकती है ! पर अफ़सोस.................!


    पूर्णतः सहमत,आक्रोश से भरा और सटीक प्रश्न उठता सुंदर लेख

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    1. 🙏🙏🙏धन्यवाद मैम🙏🙏🙏🙏

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    2. बहुत सुंदर आलेख बिल्कुल सत्यता लिए हुए

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    3. आपका बहुत बहुत धन्यवाद और आभार 🙏🙏

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  5. मन को भीतर तक छू गया आपका यह लेख | लिखती रहिये निरंतर प्रति दिन | बहुत बहुत शुभ कामनाएं |

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